प्रत्येक वर्ष जारी होने वाली एनुअल स्टेटस ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट में एक उभयनिष्ठ बात शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार होती जा रही गिरावट होती है। पिछली रिपोर्ट की बात करें तो तीसरी कक्षा के सिर्फ 25 फीसद छात्रों के ही दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकने में सक्षमता की बात उजागर की गई थी।
इस बात से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि गुणवत्ता युक्त शिक्षा ही 21वीं सदी के भारत की दशा और दिशा तय करेगी। केंद्र और राज्य सरकारें भी अब इस ओर काफी गंभीर दिखाई प्रतीत होती हैं। मोदी सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति लाने का प्रयास इसकी एक बानगी है। हालांकि देश में सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था विशेषकर प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार होने की बजाए खराबी ही आई है।
वर्ष 2010 में ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) की रैंकिंग में पीसा (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेन्ट्स एसेस्मेंट) के 73 सदस्य देशों में से भारत को 72वां स्थान दिया गया था। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में भारत ने बाद की रैंकिंग प्रक्रिया में हिस्सा ही नहीं लिया, लेकिन बुरी खबर सिर्फ इतनी नहीं है। प्रत्येक वर्ष जारी होने वाली एनुअल स्टेटस ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट में एक उभयनिष्ठ बात शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार होती जा रही गिरावट होती है। पिछली रिपोर्ट की बात करें तो तीसरी कक्षा के सिर्फ 25 फीसद छात्रों के ही दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकने में सक्षमता की बात उजागर की गई थी। ऐसे ही चिंताजनक नतीजे पिछले साल दिल्ली सरकार द्वारा कराए गए चुनौती सर्वे में सामने आए थे।
अन्य अध्ययनों के मुताबिक भी छठी कक्षा के 74% छात्र अपनी हिन्दी पाठ्य पुस्तक से एक पैराग्राफ नहीं पढ़ सके, 46% छात्र दूसरी कक्षा के स्तर की साधारण कहानी नहीं पढ़ सके और 8% छात्र अक्षरों को नहीं पहचान पाए।
लेकिन बात जब समस्या के समाधान की होती है तो कुछ शिक्षाविद् सदैव शिक्षा के मद में होने वाले खर्च को नाकाफी बताते हुए इसे देश की जीडीपी का 6% करने की मांग की जाती है। उन्हें लगता है कि अधिक धन खर्च कर शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि देश में शिक्षा के मद में होने वाले खर्चों में आजादी के बाद से ही लगातार वृद्धि होती रही है। आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के लिए 153 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान किया गया था जो कि पांच वर्ष की अवधि में खर्च होना था। बजट की यह राशि बढ़ते बढ़ते वर्ष 2016-17 तक 68,968 करोड़ रूपए प्रतिवर्ष हो गई। वर्ष 2019 के बजट में इसे बढ़ाकर 94,853.64 करोड़ कर दिया गया। लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार न होने थे और न हुए।
दिल्ली सरकार ने भी गत वर्ष 14,000 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान अकेले शिक्षा के मद में किया। राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों ने भी शिक्षा बजट में खूब वृद्धि की है। लेकिन यहां ध्यान देने की जरूरत है कि शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर हजारों करोड़ रूपए के कोष का अधिकांश हिस्सा स्कूल भवनों के निर्माण, शिक्षकों व कर्मचारियों के वेतन, नए शिक्षकों की भर्ती, शिक्षकों के प्रशिक्षण, मिड डे मिल इत्यादि पर ही व्यय हो जाता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन की प्रो. गीता गांधी किंगडन द्वारा जुटाए गए आंकड़ें भी शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता के सुधार के लिए अधिक खर्चे की पोल खोलते हैं। प्रो. गांधी के मुताबिक वर्ष 2000 में चीन ने शिक्षकों के वेतन पर वहां के प्रतिव्यक्ति आय का 0.9 गुना ही खर्च किया। वर्ष 2009 में इंडोनेशिया ने 0.5 गुना, जापान ने 1.5 गुना, वर्ष 2012 में बांगलादेश ने 1.0 गुना और पाकिस्तान ने 1.9 गुना खर्च किया। जबकि वर्ष 2004-05 में भारत के 9 राज्यों ने इसी मद में प्रतिव्यक्ति आय का 3.0 गुना ज्यादा खर्च किया। वर्ष 2006 में उत्तर प्रदेश देश के प्रति व्यक्ति आय का 6.4 गुना जबकि प्रदेश के प्रतिव्यक्ति आय का 15.4 गुना अधिक खर्च किया। 2012 में बिहार ने देश के प्रतिव्यक्ति आय का 5.9 गुना और राज्य के प्रतिव्यक्ति आय का 17.5 गुना जबकि छत्तीसगढ़ ने क्रमशः 4.6 गुना और 7.2 गुना ज्यादा खर्च किया। लेकिन इन राज्यों में शिक्षा की गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं है।
दरअसल, सरकारों की तरफ से खर्चों में लगातार वृद्धि की जा रही है। मौजूदा समय में सरकार शिक्षा पर जीडीपी का लगभग 3% खर्च करती है, लेकिन यह धनराशि लक्षित व्यक्ति तक पहुंच नहीं पा रही। धन का प्रवाह तमाम छिद्रों की वजह से रास्ते में ही लीक हो जा रहा है। प्रो. किंगडन की डिस्ट्रिक्ट इनफॉर्मेशन सिस्टम ऑन एडुकेशन (डीआईएसई) के शुरुआती आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि वर्ष 2010 और 2014 के बीच 13,498 नए सरकारी स्कूल खुलने के बाद भी सरकारी स्कूलों में छात्रों के नामांकन में 1.13 करोड़ की कमी आई है जबकि निजी स्कूलों में 1.85 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। 10.2 लाख सरकारी स्कूलों में से एक लाख स्कूलों में सिर्फ 20 बच्चों का नामांकन हुआ है। इसके अलावा 3.6 लाख सरकारी स्कूलों में छात्रों की अधिकतम संख्या सिर्फ 50 तक है। निश्चित ही ऐसे स्कूलों में निवेश करने का कोई विशेष फायदा नहीं मिल पा रहा है। इसलिए सिर्फ बजट में आवंटन बढ़ा देने से कोई खास फर्क नजर नहीं आने वाला है।
सवाल यह है कि, क्या कोई तरीका है जिससे हम शिक्षा के मद में की जा रही वर्तमान धनराशि का अधिकतम उपयोग कर वांछित परिणाम हासिल किया जा सकें!
दूसरा सवाल यह है कि इसे हासिल कैसे किया जाए, खास तौर पर तब जब केंद्र इस संबंध में बहुत कुछ नहीं कर सकता क्योंकि शिक्षा राज्य का विषय है। शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 में कई खामियां हो सकती हैं, लेकिन अगर मानव संशाधन एवं विकसा मंत्री इसके लिए कोई ढांचा तैयार कर पाएं तो इसमें काफी संभावनाएं भी हैं। आरटीई कानून की धारा 12(1)(सी) में निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित तबके के छात्रों के लिए 25% सीटें आरक्षित कर मुफ्त पढ़ाई का प्रावधान किया गया है। इससे निजी स्कूलों में गरीब छात्रों के लिए करीब 20 लाख सीटों की व्यवस्था हो गई है। उक्त सीटों के ऐवज में सरकार स्कूलों को (अपने स्कूलों में प्रति छात्र होने वाले खर्च अथवा स्कूल के वास्तविक खर्च दोनों में से जो भी कम हो) भुगतान करती है
लेकिन स्कूलों पर इस प्रावधान को लागू करने में रूचि नहीं दिखाने के आरोप लगे हैं और उनकी शिकायत यह है कि इसके लिए उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। प्रजा फाउंडेशन के हाल ही में कराए गए अध्ययन के मुताबिक दिल्ली नगर निगम से स्कूलों में औसतन प्रति छात्र 50,000 रु वार्षिक खर्च होता है। निजी स्कूलों में निश्चित ही इससे ज्यादा खर्च आता होगा। लेकिन दिल्ली सरकार निजी स्कूलों को एक छात्र के लिए 19,000 रु प्रति वर्ष के हिसाब से भुगतान करती है।
जबकि सरकार को करना यह चाहिए कि आरटीई एक्ट के तहत इस प्रावधान को सही तरीके से लागू कराने के लिए आवंटित राशि का भुगतान सीधे छात्रों को कराए। इसके लिए अभिभावक के खाते में डाइरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर या वाउचर या स्मार्ट कार्ड के जरिए भुगतान की व्यवस्था की जा सकती है। अच्छी बात यह है कि सरकार इस मौके का फायदा उठाने के लिए जरुरी बुनियादी ढांचा तैयार कर चुकी है। करीब 92% बच्चों के पास आधार कार्ड और उनके अभिभावकों के पास बैंक खाते हैं। इससे हर बच्चे की व्यक्तिगत रूप से निगरानी संभव हो सकेगी। एक बार गरीबों तक सीधा लाभ पहुंचने लगे तो उनके पास यह विकल्प होगा कि वे अपने बच्चों को पसंद के स्कूल भेजे। दूसरी तरफ आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावकों की क्रय शक्ति बढ़ने से, स्कूलों पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का दबाव भी बढ़ेगा। साथ ही इससे फर्जी स्कूलों, अध्यापकों व छात्रों के नाम पर खर्चे के रूप में होने वाली चोरी रोकी जा सकेगी।
पिछले वर्ष मानव संसाधन मंत्रालय ने सरकारी स्कूलों 80000 फर्जी अध्यापकों की पहचान की। गत वर्ष हरियाणा में छात्रों को आधार से जोड़ने के बाद सरकारी स्कूलों में 400000 छात्र फर्जी पाए गए। ध्यान रहे कि ऐसा दो कारणों से किया जाता है। एक, कम छात्र होने के कारण स्कूल को दूसरे स्कूल के साथ संयोजित न कर दिया जाए, दूसरा छात्रों के नाम पर मिड डे मिल व अन्य मदों की राशि की बंदरबांट भी हो सके। विदित है कि सरकार द्वारा एलपीजी सिलेंडर के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर से जोड़कर 50000 करोड़ रूपए से ज्यादा बचाने का दावा स्वयं करती है।
डीआईएसई के 21 राज्यों से एकत्रित शुरुआती आंकड़ों पर हुए अध्ययन के मुताबिक शिक्षा के अधिकार अधिनियम के लागू होने के चार साल बाद, साल 2010 से 2014 के बीच पब्लिक स्कूलों की संख्या में भले ही 13,498 का इजाफा हुआ हो लेकिन, इन स्कूलों में दाखिले लेनेवाले बच्चों की संख्या में 1.13 करोड़ तक की गिरावट आई हैं। वहीं इसके विपरीत निजी स्कूलों में एडमिशन का ये आंकड़ा बढ़ गया है और 1.85 करोड़ बच्चों ने इस दौरान इन स्कूलों में दाखिला लिया हैं।
इसी दौरान ऐसे सरकारी स्कूलों की संख्या जिनमें प्रति कक्षा 20 से भी कम बच्चे पढ़ते हैं तेज़ी से बढ़ी हैं। साल 2014-15 में, लगभग एक लाख स्कूल ऐसे रहे जहां बच्चों के नामांकन की संख्या प्रति स्कूल औसतन 12.7 छात्र रही है। यहां प्रति शिक्षक छात्रों की औसत संख्या 6.7 रही। वहीं सबसे चौंका देनेवाला रहा शिक्षकों की तनख्वाह का बिल जोकि 9,440 करोड़ रुपए रहा। पचास से कम छात्रोंवाले पब्लिक स्कूलों की संख्या में भी नाटकीय ढंग से वृद्धि हुई है और इनकी संख्या बढ़ कर 3.7 लाख हो गयी हैं। यह संख्या साल 2014-15 में देश के कुल 10.2 लाख सरकारी प्राथमिक स्कूलों का 36 प्रतिशत हैं। इन 3.7 लाख छोटे पब्लिक स्कूलों में औसतन केवल 29 छात्र दाखिल हैं और यहां प्रति शिक्षक छात्रों की औसत संख्या केवल 12.7 छात्र है। जबकि यहां के शिक्षकों के वेतन पर साल 2014-15 में 41,630 करोड़ रुपए की भारी भरकम राशि खर्च की गई। स्पष्ट है कि करदाताओं का पैसा एक तरीके से इन शैक्षणिक दृष्टि से गैर लाभकारी पब्लिक स्कूलों पर खर्च करना फिज़ूलखर्जी ही कहलाएगा है।
अब आगे, होना ये चाहिए कि प्रति छात्र मिलनेवाली वित्तीय सहायता सीधे स्कूलों को मिलने के बजाय, परोक्ष रूप से वाउचर के रूप में माता-पिता को मिल जाए। (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण या डीबीटी) इससे अभिभावकों का सशक्तिकरण होगा। जहां शिक्षक शिथिल पड़े, अभिभावक बच्चों को वहां से निकाल सकते हैं, उनके साथ अपने वाउचर दूसरे स्कूल ले जा सकते हैं, जिससे कि उस स्कूल को मिलनेवाली सरकारी वित्तीय सहायता कम हो जाएगी। अभिभावकों को आर्थिक दंड देने के लिए मिली ये क्षमता स्कूलों और शिक्षकों को ज़िम्मेदार बनाएगी, यहां तक की गरीब और अशिक्षित अभिभावकों को भी सशक्त बनाएगी। जवाबदेही के लिए बनी ये संरचनाएं प्रति छात्र डीबीटी अनुदान में निहित और अंतर्निहित हैं। संविधान में दिए गए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने के अधिकार (86वां संशोधन), आरटीआई एक्ट के रूप में कानून की ताकत, धन मुहैया कराने की व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के अपनी जगह दुरुस्त होने पर, मुझे मौजूदा मानव संशाधन एवं विकसा मंत्री के सामने नई व जवाबदेही से युक्त शिक्षा व्यवस्था का वास्तुकार बन सकने की बड़ी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, लगभग वैसे ही, जैसे 1991 में डॉ मनमोहन सिंह, आर्थिक सुधारों के वास्तुकार बन गए थे। सार्वजनिक अनुदान से चलनेवाले स्कूलों की अव्यवस्थित जवाबदेही के चलते अब ज़रुरत हैं कि सरकारी स्तर पर अधिक दूरगामी व साहसिक फैसले लिए जाए।