देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले रेहड़ी पटरी व्यवसायी और फेरीवाले समाज में हमेशा से हाशिए पर रहे हैं। शासन और प्रशासन द्वारा हमेशा से उन्हें शहर की समस्या में ईजाफा करने वाले और लॉ एंड आर्डर के लिए खतरा माना जाता रहा है। हालांकि सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (सीसीएस), नासवी व सेवा जैसे गैर सरकारी संगठन देशव्यापी अभियान चलाकर छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की समस्याओं को दूर करने के लिए उचित संवैधानिक उपाय की लंबे समय से मांग करते रहे हैं। इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए पिछले दिनों लोकसभा से प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेग्युलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग बिल 2012 पारित किया गया।
दरअसल, शहरी गरीबी में एक बड़ी आबादी उन छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की है जो तमाम सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं से वंचित हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में होने के कारण इनकी मांग भी प्रायः दबी रह जाती है। इस बिल को लाने के पहले कई विवाद भी उठे। केंद्र सरकार ने इसे राज्य सूची का विषय बताकर राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी थोपने का प्रयास किया। केंद्र सरकार का तर्क था कि स्ट्रीट वेंडर संबंधी नीतियां शहरी नीति के अंतर्गत हैं जो कि राज्य सूची में आता है इसलिए केवल राज्य ही इस पर कानून बना सकते हैं। जबकि यह महज स्ट्रीट वेंडरो से संबंधित नीति ही नहीं, बल्कि शहरी गरीबों का जीवन स्तर भी इससे प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।
बहरहाल स्ट्रीट वेंडरो की वैधानिकता, सुरक्षा, जीवनस्तर में सुधार, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ केंद्रीत स्ट्रीट वेंडर बिल से एक नई उम्मीद अवश्य जगी है। वर्तमान बिल में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो इनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है। इस बिल में प्रावधान है कि प्रत्येक शहर में एक टाउन वेंडिंग कमेटी होगी जो म्युनिसिपल कमिश्नर या मुख्य कार्यपालक के अधीन होगी। यही कमेटी स्ट्रीट वेंडिंग से जुड़े सभी मुद्दों पर निर्णय लेगी। इस कमेटी में 40 प्रतिशत चुने गए सदस्य होंगे जिसमें से एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। कमेटी को सभी स्ट्रीट वेंडरों के लिए पहचान पत्र जारी करना होगा। इसके पूर्व उनकी संख्या और निर्धारित क्षेत्र या जोन सुनिश्चित करने हेतु एक सर्वे कराया जाएगा। इसमें उनके लिए भिन्न-भिन्न जोन तय करने का भी प्रावधान है। प्रत्येक जोन में उसकी आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत वेंडर ही होंगे। यदि उनकी संख्या इससे अधिक होती है तो उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जाएगा। बिल में स्पष्ट प्रावधान है कि वेंडरो की जो भी संपत्ति होगी उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उनके किसी सामान को क्षति पहुंचाई जाएगी। अबतक होता यही रहा है कि स्ट्रीट वेंडरों की दुकानों को शहरी अतिक्रमण से मुक्त कराने या सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया जाता है। उनकी दुकानों और सामानों को काफी क्षति पहुंचाई जाती है, किंतु अब इस नए बिल के प्रावधान में ऐसे कृत्यों पर अंकुश लगा दिया गया है। नए प्रावधानों के मुताबिक अब यदि किसी जोन में उसकी कुल आबादी के 2.5 प्रतिशत से अधिक वेंडर होंगे तो उन वेंडरों को 30 दिन पूर्व नोटिस दी जानी जरूरी होगी, तभी उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जा सकेगा। नोटिस की समयावधि के बावजूद भी यदि कोई वेंडर उस जोन को खाली नहीं करता है तब उस पर 250 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना और अंततः बलपूर्वक हटाया जा सकेगा अथवा उनके सामानों को जब्त किया जा सकेगा। इसकी एक सूची वेंडर को सौंपनी होगी तथा उचित जुर्माने के साथ उन जब्त सामानों को वापस लौटाया जा सकेगा। बिल में स्ट्रीट वेंडरों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के अमल में आने के बाद इनकी गैरकानूनी स्थिति भी समाप्त हो जाएगी जिस वजह से वे कई तरह की सरकारी लाभ और योजनाओं से वंचित रह जाते थे। इसी वजह से वे संस्थागत कर्ज सुविधा का लाभ भी नहीं ले पाते थे तथा कई तरह के सरकारी विभागों और कर्मियों को अवैध किराया या घूस देना पड़ता था।गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा नीजि स्तर पर कराए गए सर्वे में पाया गया था कि स्ट्रीट वेंडरों द्वारा उनके गैरकानूनी दर्जे के कारण गलत लोगों को काफी मात्रा में घूस या अवैध राशि देनी पड़ती थी। इस अध्ययन में यह अंदाजा लगाया गया कि घूस की यह रकम करीब 400 करोड़ प्रति वर्ष थी। इन 15 वर्षों में यह रकम निश्चित रूप से और भी बढ़ चुकी होगी। यदि रेहड़ी पटरी वाले नियमित होते और सरकार उनसे कर वसूलती तो इतनी बड़ी राशि से सरकार स्ट्रीट वेंडरों की दशा सुधारने या बुनियादी ढांचे के विकास पर करती तो स्थिति कुछ और ही होती। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान द्वारा 15 शहरों में किए गए एक अन्य अध्ययन से यह बात सामने आई कि स्ट्रीट वेंडरों को बैंक कर्ज देने से इसलिए मना कर देते थे कि वे वैधानिक दायरे में नहीं आते थे। बैंकों द्वारा कर्ज नहीं मिलने के कारण वे सूदखोरों और महाजनों से 300 से 800 प्रतिशत तक के वार्षिक ब्याज दर पर कर्ज प्राप्त करते थे। इसका दुष्प्रभाव यह होता था कि वे आजीवन कर्ज के जाल में उलझकर रह जाते थे। वर्तमान बिल उन्हें वैधानिक दर्जा देता है जिससे उन्हें संस्थागत वित्तीय सेवाओं को हासिल करने में काफी सहूलियत होगी। वे कम ब्याज दरों पर सरकारी स्कीमों के जरिये बैंको से कर्ज भी प्राप्त कर सकेंगे। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल श्रम बल का करीब 93 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र में लगा है। इसका एक बड़ा हिस्सा स्ट्रीट वेंडरों या फेरीवालों के रूप में है। एक तरफ संगठित यानी औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का जीवनस्तर ऊंचा और आमदनी अधिक है वहीं इन श्रमिकों को दो जून की रोटी के लिए भी अपेक्षाकृत कड़ी मेहनत करनी होती है। इन श्रमिकों को वैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता जो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्राप्त है। आज असंगठित श्रमिकों का देश के जीडीपी में योगदान करीब 65 प्रतिशत है, जबकि कुल बचत में इनका योगदान मात्र 45 प्रतिशत है। स्ट्रीट वेंडर भी असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान है। इनके द्वारा बेचे जाने वाले अधिकांश सामान लघु, मध्यम उद्योगों में तैयार होते हैं।
- अविनाश चंद्र
(लेखक देश की सर्वोच्च थिंक टैंक संस्था सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी से जुड़े हैं)
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