राजस्थान पत्रिका, 08 अगस्त 2015
सांसदों की वेतन कटौती का जो प्रस्ताव है, उसे एक लोकप्रिय जनाक्रोश की तरह से समझना चाहिए। जनता में इसको लेकर गुस्सा है कि हम जिन संसदों को जनप्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, वे कितने गैरजिम्मेदार तरीके से संसद में व्यवहार करते हैं।
इसके लिए जनता चाहती है कि इन सांसदों को अपने गैर-जिम्मेदार आचरण के लिए दंडित किया जाना चाहिए। पर दंड का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिसका सांसदों में डर हो। असर हो।
आर्थिक दंड काफी नहीं
लेकिन बात सिर्फ लोकप्रिय जनाक्रोश की ही नहीं है। संसद अगर ठप पड़ी है, कोई कामकाज नहीं हो रहा है तो यह चिंता का विषय सभी आम और खास के लिए है। यह सिर्फ आज की बात भी नहीं है। ऐसा कई सालों से हो रहा है।
लेकिन 'काम नहीं तो वेतन नहीं' जैसा आर्थिक दंड संभवत: सांसदों पर कारगर नहीं हो सके। 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का दंड वहां कारगर हो सकता है जहां कि इससे प्रभावित होने वाले कर्मी या व्यक्ति की आय वेतन पर निर्भर करती हो। ऐसे व्यक्ति से आर्थिक दंड का भय दिखाकर हम काम करा सकते हैं। उसको काम पर ला सकते हैं। पर सांसदों के साथ यह मामला है नहीं।
सांसदों का वेतन उनकी आय का बहुत छोटा हिस्सा होता है। इसलिए वेतन कटौती का उन पर कोई खास असर होगा, ऐसा लगता नहीं है। इसलिए इसका कोई ऐसा निरोधात्मक उपाय सोचना होगा जो किन्हीं एक - दो अथवा दस-पच्चीस सांसदों को नहीं, सबको प्रभावित करे।
आखिर संसद चले, यह जिम्मेदारी सत्तापक्ष या विपक्ष की नहीं सभी सांसदों की होना चाहिए। जब तक हम इस सामूहिक जिम्मेदारी के भाव से नहीं सोचेंगे तब तक समस्या का हल नहीं निकल सकता।
संसद का टर्म ही घटता जाए
होना यह चाहिए कि ऐसा कानूनी प्रावधान हो कि एक वर्ष में कुछ न्यूनतम दिन या घंटे तो संसद अवश्य ही काम करे। जैसे एक वर्ष में 120 दिन या फिर 800-900 घंटे तो संसद में कामकाज हो, ऐसा कानूनन अनिवार्य बनाया जाए।
संसद कार्रवाई में कितने बिल पारित या खारिज होते हैं, कितने प्रश्न पूछे गए, प्रश्न काल कितना रहा, बहस कितनी हुई, यह सब प्रश्न सेकेंडरी हैं। इनसे संसद के कामकाज के गुणात्मक मूल्यांकन में बहुत सहायता मिलती भी नहीं है। मूल चिंता तो यही होना चाहिए कि संसद एक निश्चित समय अवधि जैसे एक वर्ष (या एक सत्र में) में कुछ निश्चित दिन या घंटे सुचारु रूप से कामकाज तो करे।
ऐसा नहीं होने पर दंड का विधान भी कुछ सांसदों या सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष तक सीमित न हो। दंड सभी को समान रूप से मिले। उदाहरण के लिए एक दंड यह हो सकता है कि अगर संसद एक साल में निश्चित दिनों या घंटों तक नहीं बैठती है तो फिर संसद की कुल समय अवधि पांच साल से घटाकर कुछ माह कम कर दी जाए!
क्योंकि ऐसी संसद जो काम ही नहीं कर रही, उसको अधिक समय तक जारी रखने की जरूरत ही क्यों और किसे होना चाहिए? इसी तरह जो संसद लगातार दो साल या तीन साल तक न्यूनतम समय भी काम नहीं करे तो उसे कुछ अधिक दंड दिया जा सकता है। इस प्रकार का दंड संभव है कि संासदों पर कारगर हो सके और उन्हें संसद चलने देने के लिए प्रेरित कर सके।
इस खबर को राजस्थान पत्रिका के वेब साइट पर पढ्ने के लिए यहॉ क्लिक करें या पीडीएफ संस्करण के लिए यहॉ क्लिक करें।