फर्जी मुठभेड़ पर लगाम
पिछले कुछ सालों में पुलिस द्वारा किए गए कई एनकाउंटरों पर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं। इनमें कई आज भी अदालतों में चल रहे हैं। इशरत जहां, सोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति और बाटला आदि केस बहुचर्चित रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अब मुठभेड़ों के संबंध में पुलिस के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं। हर मुठभेड़ के संबंध में पुलिस को इन दिशा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होगा। इन दिशा निर्देशों की पालना क्या हमें और आपको अधिक सुरक्षित बना पाएगी और भी कुछ करने की जरूरत है! इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में अनेक विशेषज्ञों की राय।
बेहद जरूरी थे यह दिशानिर्देश
संजय पारीख, एनएचआरसी के वकील
भारत में पुलिस एनकाउंटरों की संख्या और उनके प्रति पुलिस का रवैया देखते हुए यह बेहद जरूरी हो गया था कि एनकाउंटर के बारे में कुछ मार्गनिर्देश पुलिस के लिए तय किए जाएं। मुंबई में भी पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने पुलिस की कई मुठभेड़ों के फर्जी होेने संबंध में उच्च न्यायालय में केस दाखिल किया था। इसमें यद्यपि कोर्ट ने उन मुठभेड़ों के फर्जी होने या नहीं होने पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया था पर कुछ एनकाउंटरों के संबंध में पुलिस के लिए मार्ग निर्देश होने के बात अवश्य स्वीकार की थी। मुंबई हाईकोर्ट ने इस संबंध में एक कमेटी का गठन भी किया था। इसी तरह से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने भी हर एनकाउंटर पर एक एफआईआर दर्ज किए जाने के निर्देश दिए थे।
मुंबई में मुठभेड़ों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए जो मार्गनिर्देश दिए हैं उनमें लगभग वही बातें हैं जो हम मांग करते आ रहे थे। मूल मुद्दा यह है कि भारत का कानून आत्मरक्षा के अधिकार के अंतर्गत आम आदमी को जितने अधिकार देता है पुलिस को भी वही अधिकार प्राप्त हैं। पर आम आदमी अगर आत्मरक्षा में किसी को मार देता है तो उसमें आवश्यक रूप से एफआईआर दर्ज होती है पर पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारती है तो उसे मुठभेड़ का नाम दे देती है और उस पर कोई एफआईआर भी दर्ज करना जरूरी नहीं समझती। पुलिस कहती है कि किसी अपराधी को गिरफ्तार करने गए तो हमला होने पर आत्मरक्षा के लिए उन्हें भी गोली चलानी पड़ी। या अपराधी भाग रहा था तो उन्हें गोली चलानी पड़ी। अब पुलिस को हर इस तरह के एनकाउंटर के बाद पहले तो एफआइआर दर्ज करनी होगी और फिर कोर्ट में एनकाउंटर की वैधता को साबित करना होगा।
अब तक पुलिस सामान्यत: एनकाउंटर के मामलों को धारा 307 (अर्थात मृत के विरूद्ध हत्या का प्रयास का मामला बताकर) के अंतर्गत मुठभेड़ को जरूरी बता देती थी। इस तरह फाइल बंद कर देते थे।
यह कहना ठीक नहीं है कि पुलिस को आत्मरक्षा के लिए लिए आम आदमी की तुलना में ज्यादा अधिकार होना चाहिए। पुलिस के पास पहले से गिरफ्तार करने, हथियार रखने, जांच करने आदि कई अधिकार हैं। पुलिस के इन अधिकारों में और किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं है। इसलिए आत्मरक्षा के लिए विशेष अधिकारों की मांग करना ठीक नहीं कहा जा सकता।
पूरे मामले की सबसे अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि किसी भी आदमी की जान जाती या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है तो उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। पुलिस ने आत्मरक्षा में किसी को मार दिया इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसकी जांच नहीं होगी। इसलिए यह गाइड लाइन्स हर उन मामलों पर लागू होंगे जहां कि किसी नागरिक की संदिग्ध परिस्थितियों में जान जाती है या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है। जेलों में मौत पर भी यह गाइडलाइन्स लागू होंगे।
जांच नि:संदेह पुलिस को ही करे पर निष्पक्ष जांच का अधिकार हर आदमी को मिले, सुप्रीम कोर्ट ने यह बात स्वीकार की है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह व्यक्ति पुलिस वाला था, खराब था या अच्छा था - कानून के सामने हर आदमी की जान बराबर है। लगभग हर विकसित देश में एनकाउंटर के संबंध में यही स्थिति है। ब्रिटेन के बारे में यह मुझे निश्चित जानकारी है कि वहां अनिवार्यता हर एनकांउटर की पूरी और निष्पक्ष जांच होती है।
पुराने जाने-माने एनकांउटर केसों केसों पर यह गाइडलाइन्स लागू होंगी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है इन केसों पर अभी तक अदालत ने इस दृष्टि से न्यायिक स्तरीय मूल्यंाकन किया है या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश
- खुफिया गतिविधियों की सूचना लिखित या इलेक्ट्रोनिक तरीके से आंशिक रूप में ही सही पर रिकॉर्ड अवश्य की जानी चाहिए।
- यदि सूचना के आधार पर पुलिस एनकाउंटर के दौरान आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल करती है और संदिग्ध की मौत हो जाती है तो आपराधिक जांच के लिए एफआईआर अवश्य दर्ज हो।
- ऎसी मौतों की जांच एक स्वतंत्र सीआईडी टीम करे जो आठ पहलुओं पर जांच करे।
- एनकाउंटर में हुई सभी मौतों की मजिस्टेरियल जांच जरूरी।
- एनकाउंटर में हुई मौत के संबंध में तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य आयोग को सूचित करें।
- पीडित घायल या अपराधी को मैडिकल की सुविधा मिले, मजिस्ट्रेट उसके बयान दर्ज करे।
- एफआईआर तथा पुलिस रोजनामचे को बिना देरी किए कोर्ट में पेश करें।
- ट्रायल उचित हो और शीघ्र शीघ्रता से हो।
- अपराधी की मौत पर रिश्तेदारों को सूचित करें।
- एनकाउंटरों में हुई मौत का द्विवार्षिक विवरण सही तिथि और फॉर्मेट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य आयोग को भेजें
- अनुचित एनकाउंटर में दोषी पाए गए पुलिसकर्मी का निलंबन और कार्रवाई।
- मृत के संबंधियों के लिए सीआरपीसी के अंतर्गत दी गई मुआवजा योजना अपनाई जाए।
- पुलिस अधिकारी को जांच के लिए अपने हथियार सौंपने होंगे।
- दोषी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना दें और वकील व काउंसलर मुहैया कराएं।
- एनकाउंटर में हुई मौत में शामिल पुलिस अधिकारियों को वीरता पुरस्कार नहीं दिए जाएं।
- इन दिशा निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है तो पीडित सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है जो इसका संज्ञान अवश्य लेंगे।
...और कमजोर हो जाएगी पुलिस
एम. एल. शर्मा, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
फर्जी एनकाउंटर को लेकर सुप्रीम कोर्ट के नए दिशा-निर्देश समाज में अपराधीकरण को बढ़ावा देने का ही कार्य करेंगे। ये दिशा-निर्देश पुलिस बल के मनोबल और कानून-व्यवस्था में गिरावट को बढ़ाएंगे। इन दिशा-निर्देशों की आड़ में अपराधी और आतंककारी पुलिस पर आक्रमण करने को स्वतंत्र महसूस करेंगे। वे बिना ज्यादा बेखौफ होकर अपराध को अंजाम देने लगेंगे। परिणामस्वरूप आम आदमी भी ज्यादा असुरक्षित और भय से घिर जाएगा।
पुलिस द्वारा बार-बार फर्जी एनकाउंटर करने का तर्क देना सही नहीं है। अगर कोई पुलिसकर्मी फर्जी एनकाउंटर करता तो उसकी जांच का पूरा अधिकार है। लेकिन नए दिशा-निर्देश पुलिस पर अपराधियों के खिलाफ नियंत्रण करने का काम करेंगे। एनकाउंटर करने पर जांच पूरी न होने तक पदोन्नति और गैलेंट्री अवॉर्ड रोकने का प्रावधान होने पर कोई पुलिसकर्मी क्यों एनकाउंटर की राह पकड़ना चाहेगा, भले ही वह जायज अपराधी को ही मार रहा हो। पुलिस भी अपराधियों से सीधा आमना-सामना करने से बचने लगेगी। इससे समाज की सुरक्षा पर संकट बढ़ जाएगा। वैसे ही बढ़ते आतंकवाद और गैंगस्टर के कारण हमें काफी खतरा रहता है और जो थोड़ी-बहुत सुरक्षा पुलिस करती है, उससे भी समझौता करना पड़ेगा।
हमारी पुलिस वैसे ही आतंकवाद से निपटने में नाकाम रहती है और एनकाउंटर के नए दिशा-निर्देश आने के बाद उनके हाथ बंध जाएंगे। इससे अपराधी भी बच निकलने में कामयाब हो जाएंगे। कई मर्तबा कुख्यात अपराधी या आतंककारी- जिनकी पुलिस को तलाश है- उनके साथ मुठभेड़ के दौरान उन्हें शरण देने वाले भी मारे जाते हैं, ऎसे में पुलिस पर अपराधियों को मारने की बजाय दिशा-निर्देशों का दबाव रहेगा। इन गाइडलाइन की आड़ में आतंककारियों को एक तरह की सुरक्षा मिल जाएगी। हमें पुलिस को मजबूत करने की जरूरत है न कि आतंककारियों को सुरक्षित करने की। इससे आखिर हमारे देश को ही नुकसान होने वाला है।
बड़ा सवाल यह है कि 26/11 के हमले के दौरान या संसद पर हमले के दौरान ये दिशा-निर्देश होते तो पुलिस आतंककारियों को शूट करने से बचती! आगे हमें ज्यादा उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि पुलिसकर्मी कुख्यात अपराधियों या आतंककारियों के खिलाफ लड़ने के लिए आगे आएगी। वैसे ही पुलिस को राजनीतिक तौर पर नियंत्रित रखा जाता है। अब ये दिशा-निर्देश उसे दबाएंगे। आम आदमी की सुरक्षा तो भगवान भरोसे ही रहेगी। सुप्रीम कोर्ट को ऎसी रूलिंग देने से पहले पुलिस के मनोबल पर नकारात्मक असर पर विचार करना चाहिए था। जो कोई राष्ट्र विरोधी तत्व हैं, वे पुलिस के खिलाफ खुद को मजबूत समझने लगेंगे। जो एनजीओ ऎसी याचिकाएं दायर करते हैं, उन्हें भी राष्ट्र हित में विचार करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की यह रूलिंग गले उतरने वाली नहीं है।
आज पुलिस के लिए यह निर्देश आए हैं, हो सकता है कि कल कोई एनजीओ फौज द्वारा सीमा पर मुठभेड़ के खिलाफ याचिका लेकर पहुंच जाए। आज महानगरों में जिस तेजी के साथ अपराध और आतंकी वारदातें बढ़ रही हैं, उसमें पुलिस को कार्रवाई करने की स्वतंत्रता की काफी जरूरत होती है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि फर्जी मुठभेड़ का सहारा लिया जाए पर ऎसे दिशा-निर्देश से पुलिस को तोड़ना नहीं चाहिए। एनकाउंटर पुलिस को मजबूरी में करना होता है पर उसे राजनीतिक तौर पर फर्जी बना दिया जाता है।
कोई भी निर्दोष न मारा जाए
वेद मारवाह, दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर
फर्जी एनकाउंटर की बीमारी बरसों से चली आ रही है। औपनिवेशिक काल में ही ऎसी मुठभेड़ होती रही हैं। लेकिन इनको रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश उचित दिखाई पड़ते हैं। यह तर्क देना कि एनकाउंटर करने पर पदोन्नति और अवॉर्ड जांच पूरी नहीं होने तक नहीं मिलेंगे तो पुलिसकर्मी एनकाउंटर नहीं करेंगे, बिलकुल गलत है।
पदोन्नति और अवॉर्ड हाथोंहाथ नहीं मिलते हैं। कोई पुलिस अधिकारी मैडल के लिए एनकाउंटर नहीं करता है। पुलिसकर्मी अपनी डयूटी निभाता है। उसे यह भी पता नहीं होता कि एनकाउंटर का क्या परिणाम निकलेगा। इन दिशा-निर्देश के बाद ऎसा नहीं है कि पुलिस अपराधियों का एनकाउंटर करने से बचेगी। पर इसमें होने वाली जानहानि का पुलिस को ध्यान रखना जरूरी है। सावधानी बरतना जरूरी है। अगर कोई निर्दोष मारा जाता है तो उसकी जिम्मेवार पुलिस ही है। असल में इन दिशा-निर्देश के बाद पुलिस ज्यादा सावधानी बरतेगी।
हालांकि फर्जी एनकाउंटर के मामले बहुत कम हैं। भले ही एक निर्दोष मारा जाए, सम्बंधित अधिकारी पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। अगर ये बीमारी कम होती है, तो अच्छी ही बात है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि गैलेंट्री अवॉर्ड और पदोन्नति पाने के लिए अतीत में फर्जी एनकाइंटर का सहारा लिया जाता रहा है। पुख्ता इंटेलीजेंस के साथ ही पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि एनकाउंटर सीधे-सीधे जान का मसला होता है।
शिकायत और जांच के लिए हों अलग विभाग
प्रशांत नारंग, एडवोकेट, आईजस्टिस
एक बात तो तय है कि एनकांउटर के मामले में अब तक कोई गाइडलाइन्स पुलिस के लिए नहीं थीं। इसलिए पुलिस का रवैया अलग-अलग केसों में अलग-अलग रहा है। पर मुझे लगता है कि हमें यह भी समझने की जरूरत है कि इस तरह के मामलों में अभी तक पीडित के परिवार या परिचित लोग पुलिस के खिलाफ केस क्यों नहीं दर्ज करा पाते थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी इन गाइडलाइन्स में एनकाउंटरों की बाद की स्थिति पर ही विचार किया है। पुलिस किन स्थितियों में एनकाउंटर करती है या पुलिस की कार्य प्रणाली में ही कहां सुधार की जरूरत है इस पर सुृप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं कहा है।
सबसे जरूरी बात यह कि हर जगह की पुलिस - वह गांव कस्बे की पुलिस हो या बड़े शहर की - सबके पास आत्मरक्षा के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट होना चाहिए जो कि वह ऎसे एनकांउटरों के दौरान पहन सके। पुलिस के पास ऎेसे हथियार भी होना चाहिए जो कि जानलेवा घातक न हों। जैसे रबर की गोलियां चलाने वाले हथियार। जब पुलिस के पास अपनी रक्षा के लिए आश्वस्त नहीं होगी तो वह तो आत्मरक्षा में जो भी उसके पास है उसका प्रयोग करने को बाध्य होगी। एनकाउंटर के संबंध में इस पहलू पर भी गौर किया जाना था।
दूसरी बात यह कि पुलिस अपने ही खिलाफ केस दर्ज आसानी से कर ले इसके लिए उचित प्रावधान हों। इसके लिए एक स्वायत्त पुलिस शिकायत अधिकरण गठित किए बिना संतोषजनक परिणाम नहीं मिल सकते। पंजाब में अभी 2014 में इस तरह की पहल की गई है।
तीसरे, आम आदमी की शिकायतों को भी पुलिस सुने और दर्ज करे इसके लिए भी कुछ सुधार किए जाने चाहिए। पुलिस सुधार के सिलसिले में भी यह बात कई बार उठाई गई है कि पुलिस के तीन प्रमुख कामों को अलग-अलग किए जाने की जरूरत है। ये तीन काम हैं शिकायत दर्ज किया जाना, जांच करना और अभियोग चलाना। विशेष रूप से शिकायत दर्ज करने के विभाग को तो शेष पुलिस से अलग किए जाने की विशेष जरूरत है। अभी तो सबसे बड़ी चुनौती पुलिस के द्वारा शिकायत दर्ज करना ही बना हुआ है। ब्रिटेन में ऎसा है।
सुप्रीम कोर्ट की इन गाइडलाइन्स के बाद भी ऎसी स्थिति आ सकती है कि पुलिस किसी को मारकर उसके शव को गायब कर दे अर्थात मौत को संज्ञान में ही न ले। ऎसे में पुलिस को इन गाइडलाइन्स के बावजूद मामला दर्ज करने की जरूरत ही नहीं है। साथ ही अब यह देखना शेष है कि सुप्रीम कोर्ट की यह सिफारिशें कैसे लागू हो पाएंगी। छोटे कस्बों में पोस्टमार्टम की वीडियोगा्रफी या फिर एनएचआरसी में छह महीने में एनकाउंटर की जांच की प्रगति की सूचना आदि कदम पुलिस कैसे उठाएगी यह देखना शेष है।
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