स्टैंड अप और स्किल डेवलपमेंट योजनाओं की सफलता पर बड़े सवाल!

आईचौक.इन | 06 अप्रैल 2016

युवाओं को स्व-रोजगार से जोड़ने वाली बड़ी-बड़ी योजना बनाने से पहले सरकार को थोड़ा विचार लोगों की सरकारी नौकरी और आरक्षण वाली मानसिकता पर भी करना चाहिए था.

हाल ही मे प्रधानमंत्री ने स्टैंड अप इंडिया कार्यक्रम के लॉंच के मौके पर कहा कि इसकी बदौलत नौकरी मांगे वाले लोग अब नौकरियां देंगे. बहुत अच्छी सोच है स्वागत किया जाना चाहिए उनके इस कथन का. और इससे पूर्व शुरू की गई स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, मुद्रा बैंक इन सब सुधारों को एक सूधारों के चक्र के रूप मे देखा जाना चाहिए, जिसका उद्देश्य सिर्फ भारत का उत्थान युवाओं को रोजगार और विश्व मे भारत को मजबूत बनाने की कोशिश है. लेकिन इन सब के बीच ऐसे बहुत से सवाल और समस्याए हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए. ये वो बाधाएं या चुनौतियां हैं जो न सिर्फ प्रशासनिक और आर्थिक हालातों के मद्देनजर उभरती है बल्कि बहुत हद तक सामाजिक सोच भी है जो कहीं न कहीं इन सुधारो की राह मे रोड़ा अटका सकती है.

हर अभिभावक का सपना होता है उसका बेटा कलेक्टर डॉक्टर या इंजीनियर बने. कुछ न बन सके तो कम से कम क्लर्क तो कहीं बन ही जाए. यह मनोदशा किसी एक अभिभावक की नहीं है बल्कि देशभर के माता पिताओं की है जो इसके लिए महंगे से महंगे स्कूल में अपनी हाड़ तोड़ कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करके अपने लाडलों का भविष्य सुनिश्चित कर लेना चाहता है. इसके लिए भले ही उनहे आधे पेट खा कर ही क्यों न सोना पड़े. जब देश ऐसे जड़ मानसिक अवस्था से गुज़र रह हो ऐसे में कौशल विकास इस देश की तस्वीर ओर तकदीर कितनी संवार सकता है ये एक बहुत बड़ा सवाल है. आखिर क्यों हमारी मानसिकता में आज भी सरकारी नौकरी जैसा सुरक्षित भविष्य ही एकमात्र उम्मीद की किरण दिखाता है और क्या सरकारी प्रयास भी इस मानसिकता को सचमुच तोड़ना चाहते है. शायद नहीं. अगर सरकारी अवसरों को तोड़ने के लिए सरकारों की प्रतिबद्धता सचमुच इतनी ईमानदार होती तो शायद आरक्षण की चादर को दिन प्रतिदिन बढ़ाने की बजाय उसको सीमित करते. क्योंकि अगर आप आज भी आरक्षण के प्रति इतना ईमानदार दृस्टिकोन रखते हैं, इसका अर्थ है आप कहीं न कहीं उस सरकारी नौकरी के तिलस्म को तोड़ने में इच्छुक नहीं.

वास्तव में कौशल विकास को अगर पूरी तरह से इस परियोजना को सार्थक करना है तो इसके लिए जरूरी है की जितना अधिक हो सके सरकारी नौकरियों को खत्म करके उनको बाज़ार के हवाले कर दिया जाए. जहां सिर्फ दक्षता ओर सेवा की गुणवत्ता ही आधार होता है.

राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन की शुरुआत यूपीए-2 के कार्यकाल में 2009 में की गई. पहले इसका नाम राष्ट्रीय कौशल नीति रखा गया था. ऐसा नहीं है कि देश के लिए ये कोई नई योजना थी क्योंकि उससे बरसों पहले से खुले आईटीआई का उद्देश्य भी ये ही था. लेकिन कही न कहीं इस मानसिकता और सरकारी अवरोधो के चलते ये अपने उद्देश्यों से भटक गए. राष्ट्रीय कौशल नीति के अंतर्गत सिर्फ 35 लाख युवाओं को प्रशिक्षण मिला जबकि उनमें से कितने लोग सफलतापूर्ण अपना जीवन यापन कर पाये या कितने आंकड़े इनमे से सिर्फ कागजो पर हैं. इस बारे में कोई स्पस्थ जानकारी नहीं है. और वैसे भी सवा अरब की आबादी वाले देश में मात्र 35 लाख लक्ष्य हासिल करने के लिए यूपीए खुद की पीठ नहीं थपथपा सकती.

लेकिन सवाल ये है कि क्या चालीस करोड़ भारतीय युवाओं को हुनरमंद बनाने की महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय कौशल विकास देश का भाग्य बदल सकती है. जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी की कल्पाना है. उन्होंने कहा भी है कि अगर चीन विश्व की फ़ैक्टरी बन सकता है तो भला हम क्यों नहीं मानव संसाधन का केंद्र बन सकते हैं. ये बात सही है 2030 मे जब विश्व को 5 करोड़ प्रशिक्षित लोगों की जरूरत होगी और हम उसमें सक्षम हो सकते हैं अगर तैयारी आज से शुरू की जाए लेकिन जब आज़ादी के 7 दशक के बाद भी जब हम भारत ओर इंडिया के बीच की दूरियों को कम नहीं कर पाये हैं ऐसे मे कहीं न कहीं इतनी बड़ी बात करनी बेमानी से लगती है की हम यूरोप अमरीका रूस जैसे देशो को स्किल्ड मैनपावर दे पाएँ. क्योंकि कमी हमारी मानसिकता में तो है ही साथ ही शिक्षा व्यवसथा भी आमूलचूल सुधार की मांग कर रह है. उम्मीद करनी चाहिए कि नई शिक्षा नीति में उन विसंगतियों को दूर किया जाएगा जब दस्वी बारहवीं या स्नातक छात्र के सामने अब आगे क्या इस तरह का यक्ष प्रश्न नहीं होगा. दरअसल हमें इस दिशा में प्राथमिक स्कूल से ही शुरुवात करनी होगी और एक नई नीति पर काम करन होगा जिसमें निसंदेह 12 वर्षों के बाद ऐसे हुनरमंद युवाओं की फौज स्कूलों से निकलेगी जो दक्ष होगी काबलियत उसकी रगों में होगा. अभी हम पूरानी टूटी फूटी पाइप लाइन पर काम कर रहे हैं और इसमें सफलता मिलने के आसार बहुत कम है इससे बेहतर होगा कि हम नई पाइप लाइन यानी नई शिक्षा नीति के तहत काम करना शुरू करें. जर्मनी की शिक्षा नीति एक इसका अच्छा उदाहरण है. भारत में बरसों पहले ही शिक्षा व्यवस्था मे वैकल्पिक विषयों की कवायद शुरू हुई ओर सरकारी माधमिक स्कूलों में इसको लागू भी किया गया लेकिन इस दिशा में कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं मिल पाया क्योंकि शिक्षक ओर छात्र दोनों ने ही इसको गंभीरता से नहीं लिया. भारत में जहां एक तरफ बेरोजगारो की फौज है वहीं दूसरी तरफ आज भी अच्छे तकनीशियन की कमी है. जो हैं भी वो दक्ष नहीं है या उनको उसकी उचित मजदूरी भी नहीं मिल पाती. भारत में एक दौर ऐसा भी आया जब उनके लिए वोकेशनल ट्रेनिंग का मतलब सिर्फ कम्प्युटर और अच्छे रोजगार का मतलब सिर्फ प्रबंधन यानी एमबीए कोर्स को समझा और बिना सोचे समझे बैंक्स से लोन लेकर कोर्स किया लेकिन उस कोर्स के बाद ऐसा भी हुआ कि लोन चुकाने के लिए भी पैसों के लाले पड़ गए. क्योंकि उनको नौकरी नहीं मिली या जहां से उन्होने कोर्स की वो इस स्तर का प्रक्षीक्षण नहीं दे पाये कि वो बाज़ार के लायक उसे तैयार कर पाये हों. भारत में हर साल 35 लाख लोग व्य वसायिक शिक्षा में दाखिला लेते हैं जबकि चीन में चीन और अमेरिका में एक करोड़ से ज्यादा लोग इसमें दाखिला लेते हैं. लेकिन इस 35 लाख में से भी सफलतापूर्वक नौकरी अर्जित करने वालों का प्रतिशत बहुत कम है मात्र 18 प्रतिशत युवाओ को रोजगार मिला. अब इन समस्याओं का हल क्या है और कैसे हमारी युवाशक्ति का बेहतर इस्तमल कर सकते हैं. अनुमान है कि 2022 तक अर्थव्यवस्था के 24 सेक्टरों में 11 करोड़ अतिरिक्त जनशक्ति की जरूरत होगी. मोजुदा राष्ट्री य कौशल विकास कार्यक्रम की समीक्षा करें तो हम पाएंगे 40 करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाने की मुहिम सिर्फ नया मंत्रालय बनाने और 20 मंत्रालयों में बेहतर तालमेल से संभव नहीं होगी. इस पर अनुमानत: आठ लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे जबकि इस बार के बजट मे प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना का बजट मात्र 1700 करोड़ रु रखे गए हैं जिससे 1500 कौशल विकास केन्द्रो की स्थापना की जानी है जिसके द्वारा अगले 3 सालो मे एक करोड़ युवाओ को हुनरमंद बनाने की योजना है.

दूसरी बात इन 20 मंत्रालयों के बीच बेहतर तालमेल कैसे संभव हो पाए कि ये इस लक्ष्य को हासिल कर पाये इससे बेहतर था कोई एक मंत्रालय ही बेहतर तरीके से काम करता उसकी चुनौतियों को दूर करता अभी इतने दूसरे मंत्रालयों के बीच योजना के दोहराव का खतरा है. हो सकता है जो परियोजना एक मंत्रालय मे चल रही हो वो किसी और नाम से दूसरे मंत्रालय में. इस वक़्त 20 से ज्यादा मंत्रालय मिलकर 70 से ज्यादा स्किल डेवलोपमेंट कार्यक्रम चला रहे हैं.

इसके अलावा कौशल विकास योजना को और व्यापक बनाने के लिए जरूरी है भाषा संबंधी दूरियों और संस्कृति संबंधी बाधाओ को दूर किया जाये क्योंकि भाषा का ज्ञान आज भी बहुत बड़ी चुनौती है. वैश्विक परिवेश में देखे तो उस हुनर के साथ इस समस्या को भी दूर करना बहुत जरूरी है.

एक और बड़ी समस्या जिसे अनदेखा किया गया इस योजना में, कि कौशल विकास के अंतर्गत जो भी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खुल रहे हैं या प्रशिक्षण दे रहे हैं, वो कहीं न कहीं आपकी उस कोर्स को उस प्रसिक्षण स्कूल को चुनने की आज़ादी को खत्म कर रहे हैं. हुनर कहीं न कहीं व्यकतिगत पसंद नापसंद का मसला होता है उसको थोपने से कोई फाइदा नहीं होता. अगर मेरे लिए ये बाध्यता हो कि मुझे किसी खास संस्थान से किसी खास ट्रेड में दक्षता हासिल करनी है तो इस बात की कहीं अधिक संभावना है कि मनमाफिक अपेक्षित नतीजे हासिल न हों. इस व्यवस्था की एक और बड़ी खामी है कि ये भी कहीं न कहीं भ्रष्टाकचार का पर्याय बन सकता है और गुणवत्ता भी स्तरहीन हो सकती है.

आज जब सबको आधार प्रणाली से जोड़ा जा रह है तो कहीं अधिक बेहतर होता कि जरूरतमन्द को चिन्हित करके उसके अकाउंट मे पैसा भेजा जाता और वो स्वयं मनवांछित ट्रेड और संस्थान में दाखिला ले लेता, या फिर किसी कैश वाउचर के तहत उन्हें पैसा दिया जाता और वो युवा उसमें अगर कुछ और पैसों की दरकार होती उसको जोड़कर कहीं अच्छी जगह प्रशिक्षण ले लेता.

हाल ही में एक संस्थान सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी ने इस समस्या के समाधान के लिए एक पायलट परियोजना "विकल्प" को लॉंच किया. जिसके जरिये अनुसूचित जाति और जनजाति के युवाओं को वाउचर दिये. जिसका उपयोग वो मनमाफिक संस्थान में अपने पसंदीदा कोर्स के चयन में कर सकते हैं. यानि मध्यस्तों को बीच से खत्म करने की एक अच्छी योजना है. हालांकि ये कितनी सफल होगी, फिलहाल ये भविष्य के गर्भ में है.

कौशल विकास के समक्ष एक और बड़ा खतरा है. आज जिन हुनर और कौशल के प्रति हम आशान्वित हैं, जरूरी नहीं कि भविष्य में उनकी जरूरत बनी रहे. मौजूदा समय में तकनीक के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं. हो सकता है आने वाले वक़्त मे करोड़ों मौजूदा नौकरियों को निगल जाएंगे. क्या ऐसी स्थितियों में हमारे युवा फिर से बेरोजगारी का शिकार नहीं बनेंगे? अगर सरकार के 2022 तक के 40 करोड़ हुनरमंद युवाओ की फौज तयार करने के लक्ष्य को पूरा करना है तो इन सब बातों पर गौर करना भी जरूरी है.

इसके अलावा उद्योग जगत को भी आगे आना होगा और अपनी सामाजिक दायित्वों को समझना होगा. ये बात सही है मानव संसाधन की रूपरेखा उनसे सलाह मशवरा करके बनाए जाती है. उनकी जरूरतों को भी समझा जाता है. लेकिन तब तक उद्योग इन दक्ष प्रक्षिक्षित युवाओ को अपने यहाँ इन-हाउस ट्रेनिंग देनी होगी, बल्कि अब तक काम में आने वाला जो समान बाहर से आयात होता था इसके लिए उन्हे इन युवाओ को देश के भीतर वो समान बनाने के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा. इससे देश के भीतर भी चीन जैसी संभावनाएं पनप सकती हैं. भारत में अभी भी सालाना 2 करोड़ 20 लाख व्यावसायिक दक्ष लोगों की जरूरत होती है जबकि इसके विपरीत हमारी सालाना आपूर्ति मात्र 43 लाख है 20 प्रतिशत से भी कम. यानि भारत के बाज़ार में भी वर्तमान समय मे अपार संभावनाएं हैं. पढ़े- लिखे हुनरमंद नौजवानों के लिए, यानी हमें अभी भी अपना फोकस भारतीय बाज़ारों पर करना होगा, जहां आज भी अपार संभावनाएं हैं. अगर हम यहाँ मांग और आपूर्ति के बीच के फर्क को दूर कर पाए तो निसंदेह इसके बाद विश्व में भी हम अपनी अलग छाप छोड़ पाने मे संभव हो सकें.

मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया से इस बात की अपार संभावनाएं हैं कि देश में बेरोजगारों की फौज पर काबू पाया जा सकता है. क्योंकि इन दोनों योजनाओं को सही तरीके से अमली जामा पहनाने से देश की तस्वीर बादल सकती है.

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