शहर यानी,भीड़ या सुविधा
भारत भले ही बसता गांवों में हो लेकिन हमारे यहां बड़ी-बड़ी बातें अक्सर शहरों के कायाकल्प पर होती हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और अन्य तमाम राजनेता-अधिकारी इसी विषय पर खूब राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय गोष्ठियां करते हैं। लेकिन किसी भी गोष्ठी में आज तक यह तय नहीं हुआ कि, आखिर शहर है क्या ? उसकी परिभाषा और सीमा क्या है? क्या शहर से मेट्रो और मेट्रो से प्रदेश और दुनिया के देशों की तरह बड़े-बड़े आकार लेते जाने वाले ही शहर हैं? क्या दिल्ली-मुम्बई जैसे 40 बड़े और बेकाबू शहर ही भारत का भविष्य हैं या फिर सुनियोजित विकास और बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, अस्पताल और अच्छी परिवहन तथा कानून-व्यवस्था वाले कम आबादी के 40 हजार शहर दुनिया में भारत का नाम रोशन करेंगे। भारत के अनियोजित शहरीकरण पर क्या कहते हैं जानकार, पढिए आज के स्पॉटलाइट में।
नगर नियोजन में रह गई गलतियां
प्रो. अमिताभ कुंडु, जेएनयू, नई दिल्ली
भारत में नियोजित शहरी विकास के प्रयास 60 के दशक में शुरू हुए थे। पर इस दिशा में जितने भी मास्टर प्लान बनाए गए वे सभी प्राय: लैंड यूज तक ही सीमित रहे। भौगोलिक या भौतिक पक्ष तक ही सीमित रहे। उनमें सामाजिक -आर्थिक विकास के पक्षों का ध्यान ही नहीं रखा गया था। इसलिए दिल्ली समेत भारत के जितने भी शहरों का विकास हुआ है वह बाजार की ताकतों के माध्यम से हुआ है। आज शहरों में विकास मास्टर प्लान के पालन से ज्यादा उसके उल्लंघन से हुआ है। यह कहानी हर शहर की है। कमी हमारे मास्टर प्लानों में भी थी। मास्टर प्लान अत्यंत सख्त थे और यथार्थवादी नहीं थे। इसलिए उनके उल्लंघन पर कानूनी हस्तक्षेप भी नहीं हुआ।
अब तो हमने मास्टर प्लान बनाने ही बंद कर दिए हैं। अब हम विजन डॉक्यूमेंट बनते हैं। मास्टर प्लान में हर चीज का विस्तार से विवरण होता है कि कहां सांस्थानिक क्षेत्र होगा, कहां रिहायशी और कौन से क्षेत्र व्यावसायिक होगा। कहां कितनी बड़ी सड़क और सीवेज आदि होगी। पर विजन डॉक्यूमेंट काफी लचीला होता है। इसमें हिस्सेदारों (स्टैकहोल्डर्स) पर छोड़ दिया जाता है कि वे मिल बैठकर यह तय कर लेंगे कि कैसे विकास करना है। इन हिस्सेदारोें में उद्योग, रियल स्टेट आदि लोगों के साथ कुछ वेलफेयर एसोसिएशन के प्रतिनिधि, मजदूर-कामगारों के प्रतिनिधि आदि भी होते हैं। इस प्रकार अब तो पूरी तरह से बाजार की ताकतों पर छोड़ दिया गया है कि वे ही नियोजन करें और पालन करें। एक तरह से जिसके पास संसाधन हैं कमोबेश उसी पर छोड़ दिया गया है वे ही तय करें कि कैसे और किस दिशा में विकास करना है। जेएनएनयूआरएम में भी कोई मास्टर प्लान का जिक्र नहीं है। विजन डॉक्यूमेंट पर ही काम हो रहा है। इसलिए प्रदूषण, सीवेज और भीड़ व संकुलन आदि के पक्षों पर और भी कम ध्यान दिया जा रहा है।
यह कहना भी गलत है कि शहरीकरण से उपजी समस्याओं के लिए बढ़ती आबादी या गांवों से शहरों की ओर लोगों का पलायन जिम्मेदार है। आज देश में शहरीकरण की वृद्धि दर 2.7 प्रतिशत है जबकि सत्तर के दशक में यह वृद्धि दर 4 प्रतिशत से अधिक हो गई थी। अर्थात शहरीकरण की गति कम हुई है। शहरी आबादी में स्लम का प्रतिशत भी 20 से घटकर 17 पर आ गया है। यह आकलन किया गया था कि 2015 तक स्लम आबादी 9.5 करोड़ तक पहुंच जाएगी पर यह आबादी आज 6.5 करोड़ ही है। इसलिए आबादी को अथवा पलायन को जिम्मेदार ठहराना बंद करना होगा। गलतियां हमारे नियोजन और नियमन में थीं यह स्वीकार करना होगा।
हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम कुछ बड़े शहरों का विकास करने के बजाए कई छोटे शहरों का विकास करें। सैटेलाइट शहर अर्थात शहरों के पास उपनगरों का विकास इसी का एक तरीका है। नई सरकार जिन 100 स्मार्ट नगरों की बात कर रही है उसके पीछे भी संभवत: यही भावना है।
विकेंद्रीकरण है हल
अमित चन्द्रा, ने. कॉर्डिनेटर, सीसीएस
आजादी के बाद जब देश के विकास का खाका खींचा जा रहा था तब नीति निर्माताओं ने गावों के विकास पर जोर दिया। शहरों का विकास प्राथमिकता में आया ही नहीं। शहरी विकास भारत के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप से नई अवधारणा ही माना जाना चाहिए। जेएनएनयूआरएम देश की एक मात्र शहरी विकास पर केन्द्रित बड़ी योजना रही है। जिन देशों ने पिछले कुछ दशकों में तेजी से विकास किया है उनमे तेज शहरीकरण का अहम योगदान रहा है।
अब लगभग सभी इस पर सहमत हैं की शहर देश के विकास का इंजन हैं। आजादी के 60 वर्ष बाद भी शहरों में बिजली, पानी, यातायात और आवास ही मुख्य समस्या हैं। इसका मुख्य कारण है केद्रीकृत नियोजन पर जोर और स्थानीयता (सब्सिडिएरिटी) के सिद्धांत को नहीं अपनाना। यह सिद्धांत कहता है की समस्याओं का समाधान जितना संभव हो स्थानीय स्तर पर ही होना चाहिए। पानी के स्रोतों का उपयोग करने का अधिकार मिलने पर जनता न केवल उसका बेहतर ढंग से उपयोग में ला सकती है बल्कि भविष्य की जरूरतों के मुताबिक उसका उचित संरक्षण भी करेगी। शहरों में परिवहन सेवाएं पूरी कनेक्टिविटी नहीं दे पायी हैं क्योंकि योजना निर्माता साइकिल रिक्शा, ऑटो, ई-रिक्शा आदी को उचित ढंग से योजनाओं में जगह नहीं दे पाए हैं। साथ ही जरूरत है मिश्रित भूमि प्रयोग की अधिक इजाजत देना। सरकार की भूमिका आधारभूत संरचना के विकास तक ही सीमित हो और शहर का प्रबंधन जनता को स्वयं करने दे। टिकाऊ विकास की कुंजी यही है।
प्लान की सख्ती से पालना हो
एम.एन. बुच, पूर्व आईएएस
नियोजित शहर हमेशा अनियोजित शहर की तुलना में बेहतर होता है। समस्या मास्टर प्लान में नहीं है। समस्या है कि मास्टर प्लान ठीक से लागू नहीं किए जाते। इसके अलावा हर पांच साल में मास्टर प्लान की समीक्षा की जानी चाहिए। जिससे समयानुसार भूमि उपयोग में जरूरी समझे जाने वाले परिवर्तन किए जाएं। पर ऎसा होता नहीं है। एक ही प्लान बड़ी मुश्किल से बनता है। कुछ मास्टर प्लान बनाने की कमी भी होती है। मास्टर प्लान जमीनी हकीकत से दूर होते हैं। वे ऑफिस में बैठकर ही बना दिए जाते हैं।
भोपाल का उदाहरण है। भोपाल में अरेरा कॉलोनी में दुकानों या व्यावसायिक केंद्र की जगह नहीं थी। पर एक मुख्यमंत्री ने यह अनुमति दे दी। अब उस ओर जाने वालीं सड़कों पर जितना ट्रेफिक होता है वे उसकी लिए बनी नहीं थीं। मास्टर प्लान में सड़क, पानी, मल - निस्तारण, बिजली आदि की योजना लैंड यूज के हिसाब से होती है। पर भू उपयोग को बदल दो और अन्य चीजों पर ध्यान नहीं दो तो समस्या तो होगी ही। भोपाल, चंडीगढ़, गांधीनगर, भुवनेश्वर आदि देश के बेहतर नियोजित शहर हैं। पर ये वे शहर भी हैं जहां सरकारी कर्मियों की आबादी काफी है। पर जिन शहरों में धन का जोर चलता है, जो कि व्यवसाय का केंद्र बन चुके हैं वहां तो पैसा ही बोलता है। इंदौर का उदाहरण सामने है। इंदौर में पूरी तरह से भूमाफिया काबिज हो चुका है। बैंगलोर में भी स्थिति बदतर हो चुकी है। फिर भी दक्षिण भारत में स्थिति अभी भी उत्तर भारत की तुलना में बेहतर है।
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