संविधान दिवस विशेषः महत्वहीन कानूनों के समापन दिवस के रूप में मनाने की जरूरत

आज 26 नवंबर है। देश के लिए यह दिन अत्यंत ही खास है। वर्ष 1949 में आज ही के दिन संविधान सभा ने स्वयं के संविधान को स्वीकृत किया था। दो महीने बाद 26 जनवरी 1950 से यह पूरे देश में लागू हो गया।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की पहल पर वर्ष 1979 से संविधान सभा द्वारा नए संविधान को मंजूरी देने के इस अत्यंत खास दिन को देश में राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में मनाए जाने लगा। वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गजट नोटिफिकेशन के द्वारा इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाए जाने की पहल की। इससे पहले 2014 के आम चुनावों के दौरान उन्होंने अपनी जनसभाओं में कानून की किताब से पुराने और बेकार हो चुके कानूनों को समाप्त किए जाने की जरूरत को काफी प्रमुखता दी थी। सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि नए कानून बन जाने के बावजूद पुराने कानूनों के दुरूपयोग किए जाने की संभावना हमेशा बनी रहती है। छह वर्षों के कार्यकाल में केंद्र सरकार ने तकरीनब 2000 ऐसे कानूनों को समाप्त किया जो अब प्रचलन में नहीं रह गए थे।

विदित हो कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गए या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की मांग करने का अधिकार भी होता है। लेकिन यदि इस प्रश्न का जवाब देश के भीतर खोजने का प्रयास किया जाए तो अनिश्चितता एवं भ्रम की स्थिति देखने को मिलती है।

कई ऐसे क़ानून जो आज के समय में अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं, आज भी कायम हैं। कई ऐसे क़ानून जो वर्तमान के अनुकूल बदलने या खत्म होने चाहिए, आज भी पुराने प्रारूप में ही लागू हैं। कई ऐसे क़ानून भी है जिनके विरोधाभाषी क़ानून समय के साथ-साथ लागू किए गए, लेकिन पुराना क़ानून आज भी कायम हैं। कुछ कानून तो वर्तमान समय में अत्यंत हास्यास्पद भी प्रतीत होते हैं।

उदाहरण के लिए द मद्रास लाइव स्टॉक इम्प्रूवमेंट एक्ट 1940। यह कानून दिल्ली में भी लागू होता है। इस कानून के मुताबिक गाय का बछड़ा आगे चलकर बैल बनेगा अथवा सांड यह तय करने का अधिकार पशुपालक को नहीं बल्कि सरकार को है।

सरकारी अधिकारी पशुपालक से निश्चित शुल्क और आवेदन प्राप्त होने के बाद उस क्षेत्र का सर्वे करेगा और वह तय करेगा कि वहां बैल की जरूरत है अथवा सांड की। अधिकारी द्वारा जारी लाइसेंस के अनुसार ही पशुपालक बछड़े को सांड या बैल के तौर पर अपने पास रख सकता है। इसी प्रकार द टेलीग्राफ एक्ट 1950 के मुताबिक टेलीग्राफ विभाग को छोड़कर बाकी सबके लिए 2.43 मिमी से 3.52 मिमी पतला तार रखना गैरकानूनी है और इसके लिए सजा का प्रावधान है। जबकि देश में टेलीग्राफ सर्विस जुलाई 2013 में बंद कर दी गई थी जबकि इसका आमजन द्वारा इसका इस्तेमाल वर्षों पूर्व ही बंद कर दिया गया था। लेकिन उससे संबंधित कानून अब भी मौजूद है।

थिंकटैंक सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की पहल पर कुछ समय पूर्व ही समाप्त किए गए एयरक्राफ्ट एक्ट 1934 की बानगी देखिए। इस एक्ट में पतंगों और गुब्बारों को भी वायुयानों के तौर पर सम्मिलित किया गया था। इस एक्ट के मुताबिक पतंग और गुब्बारों को उड़ाने के लिए उसी लाइसेंस की जरूरत पड़ती है जो हवाई जहाज उड़ाने के लिए पायलट को चाहिए होती है।

मजे कि बात यह है कि कई राज्यों की सरकारों को भी नहीं पता कि ऐसे कानून अस्तित्व में हैं और उनके राज्य में लागू होते हैं।

हालांकि समय-समय पर सरकारों द्वारा ऐसे कानूनों के समापन को लेकर कदम उठाए भी गए हैं। ऐसे कानूनों के खात्में की गंभीर शुरूआत वर्ष 2001 की भाजपानीत् एनडीए सरकार के दौरान देखने को मिली थी जिसे बाद में यूपीए एक व दो ने भी जारी रखा था। इसके अलावा 2014 के चुनावी अभियान के दौरान खुले मंचों से पुराने और अप्रासंगिक कानूनों के खात्में को मुद्दा बनाया और बाद में लगभग 2 हजार ऐसे कानूनों को समाप्त भी किया।

चूंकि देश में गैर-जरुरी कानूनों का मकड़जाल बेहद उलझा हुआ है लिहाजा एकबार में सबको समाप्त करना बेहद मुश्किल काम है। तमाम संविधान विशेषज्ञों व सिविल सोसाइटीज़ की तरफ से 26 नवम्बर अर्थात् संविधान दिवस को ‘नेशनल रिपील लॉ डे’ के तौर पर मनाने का सुझाव दिया जा रहा है।

यानी कि वर्ष में एक दिन विशेष रूप से निर्धारित हो जिस दिन कानून के निर्माता (कार्य पालिका), उसके संरक्षक (न्याय पालिका) व अनुपालन (व्यवस्थापिका) के जिम्मेदार लोग एक साथ बैठें और अप्रासंगिक एवं बेकार पड़े कानूनों को खत्म करने पर विचार करें।

एक तरीका कानून बनाते समय उसके लागू रहने की समयावधि तय करने की भी है जिसे कानूनी भाषा में सनसेट क्लॉज के नाम से जाना जाता है।

इस प्रावधान के तहत कानून बनने के एक निश्चित समय सीमा के बाद वह निष्प्रभावी हो जाता है। यदि सरकार को लगता है कि उक्त कानून की प्रासंगिकता बरकरार है तो वह उसे संसद में एक्सटेंड कर सकती है।

Source: Amar Ujala